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प꣡रि꣢ स्वा꣣ना꣢स꣣ इ꣡न्द꣢वो꣣ म꣡दा꣢य ब꣣र्ह꣡णा꣢ गि꣣रा꣢ । म꣡धो꣢ अर्षन्ति꣣ धा꣡र꣢या ॥११२२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

परि स्वानास इन्दवो मदाय बर्हणा गिरा । मधो अर्षन्ति धारया ॥११२२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । स्वा꣣ना꣡सः꣢ । इ꣡न्द꣢꣯वः । म꣡दा꣢꣯य । ब꣣र्ह꣡णा꣢ । गि꣣रा꣢ । म꣡धोः꣢꣯ अ꣣र्षन्ति । धा꣡र꣢꣯या ॥११२२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1122 | (कौथोम) 4 » 2 » 1 » 7 | (रानायाणीय) 8 » 1 » 1 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

सातवीं ऋचा पूर्वार्चिक में ४८५ क्रमाङ्क पर आनन्दरस के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ गुरुओं का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(स्वानासः) पढ़ाने के समय शुद्धोच्चारण या भाषण करनेवाले (इन्दवः) तेजस्वी, विद्यारस से भिगोनेवाले गुरुलोग (मदाय) शिष्यों के आनन्द के लिए (बर्हणा) विरोधियों के सिद्धान्तों का खण्डन करनेवाली (गिरा) वाणी से (मधो) मधुर ज्ञानरस की (धारया) धारा के साथ (परि अर्षन्ति) शिष्यों को चारों ओर प्राप्त होते हैं ॥७॥

भावार्थभाषाः -

शिष्यों के प्रति आगाध प्रेम से परिप्लुत विद्वान् गुरु लोग उनके हित के लिए उन्हें ज्ञानधारा से सींचते हैं ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

सप्तमी ऋक् पूर्वार्चिके ४८५ क्रमाङ्के आनन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र गुरवो वर्ण्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(स्वानासः) अध्यापनकाले शब्दोच्चारणतत्पराः, (इन्दवः) दीप्ताः, विद्यारसेन क्लेदकाः गुरवः (मदाय) शिष्याणाम् आनन्दाय (बर्हणा) विरोधिसिद्धान्तखण्डयित्र्या [बर्ह हिंसायाम्, चुरादिः।] (गिरा) वाचा (मधोः) मधुरस्य ज्ञानरसस्य (धारया) प्रवाहसन्तत्या (परि अर्षन्ति) शिष्यान् परिप्राप्नुवन्ति। [संहितायां ‘मधो रर्षन्ति’ इति प्राप्ते विसर्जनीयलोपश्छान्दसः] ॥७॥

भावार्थभाषाः -

शिष्यान् प्रत्यगाधप्रेमपरिप्लुता विद्वांसो गुरुजनास्तेषां हिताय तान् ज्ञानधारया सिञ्चन्ति ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०।४, ‘स्वानास’, ‘मधो’ इत्यत्र ‘सुवा॒नास॒’, ‘सुता’। साम० ४८५।